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जनम अवधि

उषाकिरण खान

प्रकाशक : विद्या विहार प्रकाशित वर्ष : 2008
पृष्ठ :143
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 6035
आईएसबीएन :81-88140-87-2

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समाज का आईना दिखाती कहानियों का एक पठनीय कहानी-संग्रह

Janam Avadhi

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

कोकाई के संस्कार के बाद बेटों ने जैसा कि अकसर होता है, उधार लेकर भंडारे का आयोजन किया। भंडारा चूँकि साधुओं का था, सो शुद्ध घी का हलुआ-पूड़ी, बुँदिया-दही का प्रसाद रहा। संस्कार के वक्त ही साधु के प्रतिनिधि ने बड़े बेटे फेंकना से कहा, ‘‘तुम कोकाई को अग्नि कैसे दोगे? साँकठ जो हो, पहले कंठी धारण करो; साधु को पैठ होगा वरना।’’
रोता हुआ अबूझ सा फेंकना कंठी धारण कर बैठ गया। बारहवीं का भोज समाप्त हुआ। गले में गमछा डालकर फेंकना-बुधना साधुओं के सामने खड़े हुए।

‘‘साहेब, हम ऋण से उऋण हुए कि नहीं ?’’ कान उऋण सुनने के लिए बेताब थे। साधु घी की खुशबू में सराबोर थे; कीर्तनिया झाल-मृदंग बजाकर गा रहे थे—‘मैली चादर ओढ़ के कैसे द्वार तिहारे जाऊँ।’
‘‘नहीं रे फेंकना, तेरी ऋणमुक्ति कहाँ हुई ? गोसाईं साहेब ने दो साल पहले पचहत्तर मुंड साधु का भोज-दंड दिया था। नहीं पूरा कर पाया बेचारा। यह तो तुम्हें ही पूरा करना पड़ेगा। उऋण होना है तो यह सब करना पड़ेगा।’’
‘‘पचहत्तर मुंड साधु ? क्या कहते हैं, हम ऐसे ही लुट गए अब कौन देगा ऋण भी हमका ?’’ रोने लगा फेंकना।
‘‘क्या ? तो बाप का पाप कैसे कटित होगा ?’’

इसी पुस्तक से

जनम अवधि संग्रह की कहानियाँ भारतीय समाज, शासन-प्रशासन में व्याप्त विसंगतियों, जन-आक्रोश और असंतोष से उपजी हैं। सुधी पाठकों को ये कहानियाँ अपनी लगेंगी और अपने आस-पास ही साकार होती नजर आएँगी। समाज का आईना दिखाती कहानियों का एक पठनीय कहानी-संग्रह

पत्रकारिता की रस्म


चंदन को ऐसा लग रहा था मानो सपने में कुछ सुन रहा हो। घों-घों करती बस साढ़े आठ बजे रात को स्टैंड पर लगी थी। गहरी थकान का जरा भी अनुभव नहीं किया था उसने। लेकिन धचके से बस के रुकने के साथ स्वयं लड़खड़ा गया था। सामने की सीट के हत्थे से टकरा गया, शायद गूमड़ भी हो गया। चंदन उत्साह से इतना अधिक लबरेज था कि उसे किसी ऊमड़-घूमड़ की परवाह नहीं थी। उसे तो जाते ही रपट तैयार करने में जुट जाना है। सीट के ऊपर बने खाँचे से उसने अपना छोटा सा फोलियों बैग उतारा और कंधे पर टाँगकर दरवाजे की ओर बढ़ा। इस डीलक्स बस में ठेलम-ठेलवाली भीड़ नहीं होती। आहिस्ता-आहिस्ता लोग पंक्तिबद्ध हो उतर जाते हैं। उत्साह में भरा नौजवान चंदन कूदकर उतरा और मस्ती में घर की ओर जानेवाली दूसरी सवारी में बैठ गया। वह बैठा ही था कि उसका ऑटोरिक्शा चल पड़ा। सारा संयोग अच्छा है, उतरते ही ऑटो का मिल जाना। उसके मुहल्ले की ओर जानेवाली सवारियाँ कम ही हैं, इसलिए अकसर इंतजार करना पड़ता है।

एक हफ्ते से चंदन दक्षिण बिहार की यात्रा पर था। जाते वक्त भैया ने कहा था, ‘अपना खयाल रखना, खोए-खोए रहने की जो तुम्हारी आदत है, उससे आज की पत्रकारिता नहीं होती।’’
‘अपना चंदन अब होशियार हो गया है। देखते नहीं लिखता भी खूब है।’ भाभी ने सदा की तरह तरफदारी की थी।
‘खाक होशियार है ! जैसी तुम हो वैसा तुम्हारा यह चंदन। लिखने से क्या होता है, दुनियादारी तो आती ही नहीं।’ भैया देर तक पत्रकारिता की दुनियादारी समझाते रहे थे। ‘पत्रकारों को हिम्मतवर और सूक्ष्मदर्शी होना चाहिए।’ कहा था, ‘पर जाँबाजी करने की जरूर नहीं, समझे।’ ऐसा कहते तुर्श हो चले थे। ऊँह, भैया तो जैसे दुनिया के हर पेशे को तह तक जानते हैं; पर मैं दावे के साथ कह सकता हूँ सारा दाँव-पेंच, परंतु उन्हें समझाए कौन ! समझाना तो दूर, जवाब कौन दे ! जवाब देने लगूँ तो डाँट लगेगी—‘चुप रह, अभी जुम्मा-जुम्मा आठ दिन तो हुए हैं इस लोकल अखबार में स्ट्रिंगर लगे, चले हैं हमें समझाने !’

‘आपने देखा, चंदन के कितने लेख छपे हैं, कितनी रपट आई हैं।’ भाभी दिलासा देतीं।
‘तो क्या हुआ ? छपेगा ही। यही करता रहता है रात-दिन। कागज पर चिरचिरी और क्या ?
भैया चंदन के काम का सदा मजाक क्यों उड़ाते रहते हैं, वह समझ नहीं पाता। फिर वही भैया पत्रकारिता और निबंध-लेखन के गुर भी समझाते। चंदन उनके निबंध-लेखन के गुर बताने का कायल है। भैया की भाषा सदा सर्वदा मँजी होती है। क्रोध में भी उन्हें शब्दों का अकाल नहीं पड़ता। बिना चलताऊ गाली के साफ-सुथरी भाषा में भैया अपने आक्रोश की नंगी तलवार से जंग जीतने में माहिर हैं।

‘जानते हो, क्यों ?’ एक वरिष्ठ पत्रकार ने एक दिन चंदन से कहा था, ‘क्योंकि तुम्हारे भैया एक सुज्जा ईमानदार व्यक्ति हैं।’ यह ‘सुज्जा ईमानदार’ क्या होता है? खैर, छो़ड़िए इन बातों को। अभी तो चंदन का अपना कैरियर है। कागज, कलम और अखबार। इस सुहावने कैरियर के लिए चंदन ने लाखों के बोल सहे हैं।
श्रीनाथ ने इसका नाम ही ‘नेशनल टेलर’ रख दिया है—‘द नेशनल टेलर कटर ऐंड फिटर।’

‘रात-दिन विदेशी आखबारों-पत्रिकाओं में गर्क रहते हो बरखुरदार ! उससे निकाल-निकालकर जो मक्खन परोसते हो, वह बासी रहता है, अरे, पत्रकार बनना है तो धरती पर आओ, कुरसी से उतरो।’ श्रीनाथ अकसर इस चौबट्टी गोष्ठी में बैठने को प्रेरित करता। एक-आध दिन गया भी, पर इसे रास नहीं आया। नुक्कड़ की धुँआती चाय की दुकान और धुँधुआते पत्रकार लेखक, रंगकर्मी, बच्चे, जवान, बूढ़े, आत्मश्लाघा के मारे भूतपूर्व कुछ धुआँ उगलते नए उसे पैसिव इन्हेलर की तरह ग्रहण करने को विवश होते। प्रतिदिन कोई-न-कोई मुरगा बनता, जिसके सिर पर चाय पी जाती। मोटे मुरगे के सिर पुर उससे ऊपर की भारी चीज पी जाती। मधुमती भूमिका में आते ही लोग दुनिया भूल जाते हैं। देश-काल की चिंता, राजनीति की बखिया उधेड़ने को भूल अपनी एक-दूसरे की ओर खांड बजाने लगते। चंदन दहशत से भर उठता। न, मुझसे नहीं होगा ऐसा जमीन पर उतरना ! बाज आए ऐसी पत्रकारिता से।
‘तुम उजबक हो। तुम बने रहो ‘नेशनल टेलर’।’ कहता श्रीनाथ। हुँह, नेशनल टेलर ! अगर मेरे निबंधों में दम नहीं है तो क्यों छापता अखबार उसे।

‘हाँ, ठीक कहते हो।’ भाभी ने दिलासा देने का काम सँभाल ही रखा था।
‘सुनो, तुम गंभीर लेखों से थोड़ा सा बाएँ सरक लो।’ एक दिन भाभी ने कहा।
‘वो कैसे ?’
‘रिपोतार्ज लिखो। रपट खालिस होता है, रिपोतार्ज में साहित्य होता है। तुम्हें साहित्य का लालित्य भाता है न, उसे ट्राई करो।’ भाभी के कथन को सुना-समझा, पर कैसे करें यह सब ! अपने को भूमि पर उतार नहीं पाता चंदन। दस पत्रिकाएं पढ़कर विचार बना सकता है, एक लेख संयोजित कर सकता है; परंतु जिस रिपोतार्ज को पढ़ने में उसका मन नहीं लगता, उसे लिखे कैसे ?

‘चलोगे शहर से बाहर ?’ मंसूर ने कहा था।
‘इससे सुबह की कड़क चाय नहीं छोड़ी जाएगी, इसके एक घंटे का सेप्टिक लू नहीं छोड़ा जाएगा। यह साँस खींचकर कहाँ-कहाँ बैठेगा ? नो, यह नहीं जा सकेगा।’ श्रीनाथ ने मंसूर से कहा।
‘क्या यार, मैं क्या अमेरिका से आया हूँ ?’ चिढ़ गया चंदन।
‘लक्षण बता रहा हूँ, ओरिजिन नहीं।’ श्रीनाथ ने गाल फुलाकर कहा।
‘जाना कहाँ है और क्यों है ?’
‘कहीं दक्षिण की ओर चलते हैं। उधर की दुनिया को सुगंधित फूल की तरह हमने कभी-कभी सूँघने के लिए छोड़ रखा है। पर उस फूल में कीड़े-मकोड़े लगे हैं।, उसकी चिंता नहीं करते।’ मंसूर ने कहा।
‘वह सब तो इधर भी है।’ श्रीनाथ ने कहा।

और आनन-फानन में दक्षिण जाने का कार्यक्रम बन गया था।
‘कहाँ बौराए फिरोगे तुम लोग ? यूँ ही जा रहे हो या किसी खास समाचार की गंध लगी है ?’ भाभी ने तीनों से पूछा था।
मंसूर और श्रीनाथ ने बढ़-चढ़कर जंगल-पहाड़ की कथाएँ सुनाई थीं— ‘कैसी-कैसी विचित्र मान्यताएँ हैं। कैसे-कैसे जुल्म ढाए जाते हैं, खासकर बेबस लाचार स्त्रियों पर। समाचार-ही-समाचार मिलेंगे उधर तो। खोजने चले हैं। पत्रकारिता में जोखिम न लें तो फिर बात कैसे बनेगी ! मोहन बिंद जैसे दुर्धर्ष डाकू की खोह में पहुंचकर बात करने वाला पत्रकार ही तो है। जान जोखिम में डालकर वीरप्पन का पता पानेवाला, तसवीर उतारने वाला कौन है ?’
‘ठीक है, ठीक है, सब है; पर चंदन जैसा मूढ़ और श्रीनाथ जैसा हवाई कोई नहीं है। तुम मंसूर समझदार हो। इन पर ध्यान देना।’ भाभी ने सहमति देते हुए कहा था।

‘क्यों इसे यह सब करने को कहती है ? किसी दिन सुनोगी, अजगर इसे खा गया।’ भैया ने कहा था।
‘क्या ? अजगर ? यह कहाँ मिलेगा ?’ भाभी चौंकी थीं।
‘तुम्हें नहीं पता, उधर के जंगल में अजगर होता है। कटे पेड़ के तने की तरह पड़े रहते है। उस पर काई जमी होती है। घास-फूस तक जमें रहते हैं। यह उसी को टेबल बनाकर लिखने बैठ जाएगा और...’
‘धत् आप भी बात करते हैं।’ भाभी ने कहा था। इन्हें एक और बाधा पार करनी थी। तीनों तीन अखबार में थे। अपने-अपने संपादक, चीफ रिपोर्टर से आदेश-पत्र लेना था। थोड़ी हील-हुज्जत के साथ वह भी मिल गया। इस ताकीद के साथ कि जो भी कोई अनाघ्रात रपट हो, वह हमारे यहाँ पहले छपे। स्ट्रिंगर से स्टाफर बनने का सुअवसर बोनस होगा। भाभी ने रास्ते भर खाने का सामान तैयार कर दिया था।

बस की लंबी यात्रा अबाध नहीं थी। खूबसूरत चिकनी सड़क, दक्षिणी सुंदरी की तरह बल खाती कोण बनाती। ऊँचे-ऊँचे दरख्त, विश्वास की तरह अडिग खड़े। भाँति-भाँति के निर्भय पक्षी भारतीय ऋतुओं की तर्ज पर बहुरंगी। इसी यात्रा में पहली बार चंदन ने मोर के झुंड को नाचते हुए देखा। ऊँचे वृक्षों के चौड़े, गोल, चौकोर, तिकोने बड़े-बड़े पत्तों पर पड़ते वर्षा-जल को छोटे पौधों से झाड़ियों पर और झाड़ियों से दूब पर क्रमशः आते देखा। झमाझम बारिश में भी घनी झाड़ियों की जड़ें सूखी दिखीं। भ्रष्टाचार –सी गहरी लतर अमरबेल ने बूँदों को वहाँ पहुँचने न दिया। राजनीति-शास्त्र की शासन व्यवस्था का अध्याय अनायास इस यात्रा ने अक्षर अक्षर समझा दिया।

दक्षिण पहुँचते ही उन्हें अचानक एक समाचार की गंध लगी। बागजोरी गाँव में एक औरत को बैल बनाकर जोता गया। उसे यह सजा उसके पति की शिकायत पर गाँव के जातीय पंचों ने दी है।
‘‘अरे बाप रे, ऐसा न कहीं देखा, न सुना; औरत को बैल बनाया !’’
श्रीनाथ ने कहा।
‘‘पर बाबू लोग, आप लोग न जाएँ तो अच्छा हैं।’’ सड़क किनारे के ढाबेवाले ने कहा।
‘‘क्यों न जाएं ? हम पत्रकार हैं।’’ श्रीनाथ आगे-आगे बोल रहा था।
‘ई संथाल लोग बड़ा एथी होता है, का जाने का कर दें !’’ ढाबे वाले ने वस्तुस्थित समझाने की चेष्टा की।


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